20 वीं शताब्दी की उत्तरप्रदेशीय विद्वत् परम्परा
 
शिवशरण सिंह चौहान
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जन्म 04 अगस्त 1946
जन्म स्थान गांव संतरहा
स्थायी पता
130 ‘भवानीभवनम्’ बैहरा सौदागर पश्चिमी धर्मशाला रोड

शिवशरण सिंह चौहान

विद्वत्ता, सदाचार और सादगी से परिपूर्ण राजर्षि परम्परा की साक्षात् प्रतिमूर्ति का यदि दर्शन करना चाहते हैं तो हमारी दृष्टि भौतिकता से विरक्त, विद्या में अनुरक्त ऐसे व्यक्ति की ओर खींच ले जाती है जिन्होंने वस्तुतः शिव के शरण-वरण में अपना जीवन समर्पित किया है। नाम है इनका शिवशरण सिंह चौहान। हरदोई जनपद के ऐतिहासिक पिहानी नगरक्षेत्र से दक्षिण ओर ‘संतरहा’ नामक एक गांव है। जहां विशेष रूप से चौहान क्षत्रिय वंशज के लोग रहते हैं। इस गांव के क्षत्रिय, लोग देववाणी संस्कृत के कितने उपासक और कितने प्रेमी रहे हैं इसका उदाहरण यहां के संस्कृत सुधीजनों से ही जाना जा सकता है।

डॉ. शिवशरण सिंह चौहान का जन्म 4 अगस्त, 1946 ई. को हरदोई जनपद के ‘संतरहा’ नामक गांव में हुआ। आपके पिता का नाम भारत सिंह चौहान तथा माता जी का नाम विटोली देवी था। माता और पिता का अनुशासन और सात्त्विक विचार का प्रभाव कोमलकान्त हृदय वाले शिशु पर पड़ता ही है, अतएव इनके जीवन में आदर्श छाप, आदर्श जीवन का कारण बनी हुई है। संस्कृत के प्रतिष्ठित विद्वान् यशवन्त सिंह की देखरेख में इनकी आरम्भिक शिक्षा परम्परागत रूप से संस्कृत विद्यालय से आरम्भ हुई। उस समय विद्यालय में ही बहु-आवासीय छात्रावासों में रहकर विद्याध्ययन करते थे तथा लगनपूर्वक नियम से संस्कृत का ज्ञानार्जन करते थे। प्रथमा की पढ़ाई-लिखाई भी वहीं गुरुकुल छात्रावास में रहकर हुई। उत्तरमध्यमा एवं शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से दर्शन विषय में आचार्य तथा अपने विषय-विशेष में स्वर्णपदक भी प्राप्त किये। पुनः ‘महाभारते सांख्यतत्त्वविमर्शः’ विषय पर गहन अध्ययन कर विद्यावारिधि की उपाधि प्राप्त की। तदनन्तर हरदोई आकर श्री संकटहरण संस्कृत महाविद्यालय सकाहा जहां से अध्ययन आरम्भ किया वहीं से अध्यापन भी आरम्भ किया। अपने अध्यापन काल में कुशल, कर्मठ, ईमानदार आचार्य के रूप में कार्य करते हुए तथा प्राचार्य पद को सुशोभित करते हुए वहां से अवकाश ग्रहण कर वर्तमान में आप 130 ‘भवानीभवनम्’ बैहरा सौदागर पश्चिमी धर्मशाला रोड में अपने आवास में रहते है। आज भी संस्कृत के स्नातक-परास्नातक छात्रों को बिना किसी शुल्क के ज्ञान बांटते रहते हैं। इतना ही नहीं संस्कृत शिक्षा ग्रहण करने वाले क्ष् को भी संस्कृत की शिक्षा देकर उनमें देववाणी के माधुर्य को पिलाते रहते हैं।

आपका विवाह सन् 1965 ई. में श्रीमती श्रुतिकीर्ति चौहान के साथ सम्पन्न हुआ था। डॉ. प्रधीश कुमार सिंह चौहान के साथ अपना गृहस्थ जीवन सुखमय बहुत ही संयम-नियम के साथ व्यतीत कर रहे हैं। बड़ी-बड़ी संस्कृत गोष्ठियों और सेमिनारों में आपकी प्रवाहमयी संस्कृत वाग्धाएँ श्रोतागणों को ज्ञान से आप्लावित करती रहती है। यही कारण है कि अपने मंच पर आपको बुलाकर लोग अपने को गौरवान्वित महसूस करते हैं। आपने अपनी वक्तृत्व क्षमता से सिद्ध कर दिया है कि संस्कृत पर किसी व्यक्ति या जाति विशेष का अधिकार नहीं है। संस्कृत तो सबकी माता है, ज्ञान पिपासुओं की जननी है। हिन्दी एवं संस्कृत के अतिरिक्त अंग्रेजी में भी आपकी पकड़ मजबूत है।

कृतित्व-संस्कृत के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखों का प्रकाशन हुआ है, संकटहरण संस्कृत विद्यालय, सकाहा की वार्षिक पत्रिका ‘संस्कृत प्रभा’ एवं ‘महीधर प्रभा’ का कुशल सम्पादन अवकाश पर्यन्त करते रहे हैं।

‘महाभारते सांख्यतत्वविमर्शः’ आपका शोध विषय ग्रन्थ रहा जिसे सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से विद्यावारिधि की उपाधि के लिए प्रस्तुत किया गया था। इसके अतिरिक्त सांख्य दर्शन का इतिहास तथा सांख्यकारिका टीका प्रकाशित है। आपने संस्कृत निबन्ध संग्रह एवं हिन्दी में कविता का एक संग्रह लिखा है।