20 वीं शताब्दी की उत्तरप्रदेशीय विद्वत् परम्परा
 
गिरिधर ओझा
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जन्म 27 नवम्बर 1907
जन्म स्थान ग्राम कालूपुर
स्थायी पता
ग्राम कालूपुर खागा तहसील

गिरिधर ओझा

श्री गिरिधर ओझा जी का जन्म फतेहपुर जनपदान्तर्गत खागा तहसील के कालूपुर नामक ग्राम में 27 नवंबर सन् 1907 को हुआ था । इनके पिता का नाम श्री सुखनंदन ओझा एवं माता का नाम श्रीमती सरस्वती देवी था । सन् 1928 में श्री ओझा जी ने श्रीमती कृष्णावती देवी के साथ पाणिग्रहण संस्कार करके गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया, जिनसे 4 पुत्र, श्री विद्याधर ओझा (प्रवक्ता हिंदी, जनता इंटर कॉलेज दिवलहा, फतेहपुर), श्री चंद्रधर ओझा (बी.ए.एम.एस), श्रीधर ओझा (परीक्षाधिकारी संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी) तथा 5 पुत्रियां, श्रीमती रानी देवी, शांति देवी, कांति देवी, राज देवी तथा उषा देवी थीं ।

श्री ओझा जी ने अपनी आरंभिक शिक्षा अपने ही गांव क्षेत्र में प्राप्त करने के उपरांत पारम्परिक संस्कृत अध्ययन हेतु धर्मज्ञानोपदेश संस्कृत महाविद्यालय प्रयाग चले गए । वहां पर प्रमुख रूप से उत्कृष्ट विद्वान् पं. श्री रामचरित मिश्र एवं श्री गिरिजा शंकर त्रिपाठी के सानिध्य में रहकर व्याकरण एवं साहित्य विषय में आचार्य की उपाधि प्राप्त की । छात्र जीवन में विद्यालय के वार्षिकोत्सव के अवसर पर बादशाह अकबर का सुंदर अभिनय प्रस्तुत करके श्री ओझा जी ने सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया था । वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय (संप्रति संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय) के प्रवक्ता श्री भूपेंद्रपति त्रिपाठी जी एवं पं. जटाशंकर त्रिपाठी जी (जौनपुर) इनके प्रिय सहपाठी थे ।

अध्ययनोपरान्त यमुना तट पर स्थित किशनपुर कस्बे में श्री मुन्नू बाबा द्वारा संचालित एक छोटी संस्कृत पाठशाला में आप अध्यापन कार्य करने लगे । कुछ ही दिनों में आचार्य जी के वैदुष्य की चर्चा चारों ओर फैल गई । परिणाम स्वरूप ग्रामीणाञ्चल व यमुना जी के उस पार के कई विद्यार्थी अंतेवासी के रूप में शिक्षा प्राप्त करने लगे । सन् 1945 ई. में माफीटीकर सुल्तानपुर के तपस्वी सिद्ध सन्त स्वामी परमहंस श्री देव आनंद जी महाराज ने ओझा जी के वैदुष्य को जानकर तत्कालीन नैतिक ब्रह्मचारी श्री योगी महाराज को निर्दिष्ट किया कि नैपाला सिंह कोठारी को भेजकर श्री गिरिधर ओझा जी को जिस रूप में तैयार हों ससम्मान आश्रम में ले आए । कोठारी जी फतेहपुर आकर आदर सहित इन्हें आश्रम लिवा ले गए । ओझा जी ने यह शर्त रखी कि हमारे जो विद्यार्थी किशनपुर पाठशाला में शिक्षा पा रहे हैं उनके भोजन तथा आवास की व्यवस्था करनी पड़ेगी । जिसके लिए स्वामी जी ने सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर दी । आश्रम के विद्यालय में प्रधानाचार्य पद पर नियुक्त होकर दिन-रात कठोर परिश्रम करके अनेक योग्य विद्यार्थियों की संख्या तैयार कर दी, जो देश प्रदेश स्तर पर अपने वैदुष्य से गुरु जी की प्रतिष्ठा को गौरवान्वित कर रहे हैं । जिनमें से कुछ शिष्यों के नाम उल्लखित हैं - पं० चन्द्र सेवक त्रिपाठी (यह नरसिंहपुर मध्य प्रदेश में महाविद्यालय के संस्कृत व्याख्याता थे), श्री वासुदेव पाण्डेय (गढ़वाल उत्तराखंड में संस्कृत व्याख्याता पद पर थे),  डॉ. सीताराम शुक्ल (उन्नाव संस्कृत महाविद्यालय के आचार्य पद पर थे), श्री सर्वदानन्द शास्त्री (बरैची फतेहपुर में संस्कृत विद्यालय के आचार्य थे), श्री सत्यानन्द शुक्ल (श्री नारायण निरंकारी संस्कृत महाविद्यालय फतेहपुर में व्याकरण विभागाध्यक्ष), पं० शिव कुमार पाण्डेय (सैनी), श्री प्रयागदत्त जी (मनौरी), श्री ओम प्रकाश सिंह रावत (एकडला फतेहपुर), श्री देवनारायण त्रिपाठी (सीतापुर डिग्री कॉलेज), श्री रामसागर मिश्र (व्याख्याता - राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान), श्री साधु राम त्रिपाठी (प्राचार्य - माफी टीकर आश्रम), पूज्य श्री हरि चैतन्य ब्रह्मचारी इत्यादि । इस प्रकार श्री ओझा जी की वृहती शिष्य परम्परा है ।

यद्यपि श्री ओझा जी ने स्वतंत्र रूप से कोई ग्रंथ नहीं लिखा तथापि जीवन पर्यन्त संस्कृत भाषा के संवर्धन हेतु योग्य शिष्यों की वृद्धि की है जोकि कीर्ति पताका को उत्तरोत्तर गौरवान्वित कर रहे हैं क्षेत्र में भी श्री ओझा जी का योगदान अतुलनीय अविस्मरणीय है ।

आश्रम के विद्यालय में ही रहते हुए उन्होंने अपनी संपूर्ण सेवा व्यतीत की । श्री भूपेंद्र पति त्रिपाठी जी ने कई बार इन से आग्रह किया कि आप विश्वविद्यालय आ जाइए । यहां आपको 300 रुपए मासिक वेतन मिलेगा किंतु आपने यह कहकर कि "मेरा जीवन महाराज जी की सेवा व विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए समर्पित है, मेरे लिए 30 रुपए ही हजारों के बराबर हैं" कह कर मना कर दिया और श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय माफी टीकर अमेठी (सुल्तानपुर) में ही अध्यापन कार्य करते हुए सन् 1980 को सेवानिवृत्त हुए । सेवानिवृत्ति के पश्चात् 3 वर्षों के लिए संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी में सम्मानित प्राध्यापक (विजिटिंग प्रोफेसर) पद पर कार्य किया  । व्याकरण, साहित्य आदि विषयों के साथ-साथ ज्योतिष एवं कर्मकांड में भी आपकी गहरी पैठ थी । अनेकों तीर्थों में आपने श्री ब्रह्मचारी जी के साथ यज्ञाचार्य के रूप में विविध यज्ञ संपन्न करवाएं तथा प्राप्त दक्षिणा सुपात्र व्यक्तियों में वितरित कर देते थे । सन् 1980 में काशी के मछली बंदर मठ में आप यज्ञाचार्य थे। जहां पर समस्त विद्वन्मंडली के समक्ष तत्कालीन संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति श्री बदरीनाथ शुक्ल जी ने ओझा जी के वैदुष्य की भूरि- भूरि प्रशंसा की एवं यज्ञ के पश्चात् माफी टीकर आश्रम के विद्यालय को शिक्षाशास्त्री (बी.एड.) की मान्यता प्रदान की । श्री गिरिधर जी ओझा उत्कृष्ट विद्वान् के साथ-साथ परम साधक भी थे । यह समय समय पर श्री करपात्री जी महाराज, श्री प्रभु दत्त ब्रह्मचारी, संत श्री सच्चा बाबा, संत श्री देवरहा बाबा, श्री प्रेम पुजारी जी इत्यादि सिद्ध संतों के साथ मिलते रहते थे ।

इस प्रकार देववाणी की अहर्निश सेवा करते हुए तथा त्यागमय जीवन व्यतीत करते हुए अपने जन्मस्थान कालूपुर  ग्राम में ही 10 मार्च सन् 2002 को अपनी ऐतिहासिक लीला समाप्त करके गोलोक वासी हो गए ।