20 वीं शताब्दी की उत्तरप्रदेशीय विद्वत् परम्परा
 
ऋतम्भरा शास्त्री
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ऋतम्भरा शास्त्री

ऋतम्भरा शास्त्री व्याकरणाचार्य M.A का आगम काल पदवाक्यप्रमाणज्ञ पू० पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी की स्मृति संस्थापित पाणिनि कन्या महाविद्यालय वाराणसी में पिता श्री गोविन्दराम ध्यानी जी और माता श्रीमती सरलादेवी जी की हार्दिक इच्छा को देखते हुए आर्य विद्या के पल्लवित वृक्षद्वय वेदव्याकरण पण्डित पूज्या आचार्या प्रज्ञा देवी तथा आपकी अनुजा पूज्या मेघा देवी जी की छत्र छाया में व्यतीत हुआ । इनका विवाह आचार्य इन्द्रबन्धु शास्त्री जी के साथ हुआ । इनकी दो संताने हैं - अक्षरा और अङ्गिरस् । यद्यपि इनके पिताजी नगाधिराज हिमालय की सुरम्य उपत्यकाओं में अवस्थित उत्तराखण्ड राज्य के गढ़वाल मण्डलान्तार्गत पौड़ी जनपद के तलगल नामक ग्राम के निवासी थे, तथापि रेलवे में कार्यरत होने के कारण यत्र-तत्र स्थान्तरित होते रहते थे, जब इनका जन्म हुआ तब वे आर्य समाज हरथला कॉलोनी मुरादाबाद में रहते थे, तथा वहां पुरोहित पद पर भी आसीन थे । इनके जन्म तक इनके पिताजी वैदिक धर्म में पूरी तरह रंग चुके थे, सत्यार्थप्रकाश पढ़ना पढ़वाना इनका प्रिय ध्येय बन गया था । इसके साथ ही सत्यार्थप्रकाशादि ग्रन्थों की प्रेरणाप्रद सूक्तियों से मुरादाबाद महानगर की कितनी ही दीवारें आपने अपने सुलेख से सुभूषित कर दी थीं । प्रातः काल 4 बजे से प्रातः कालीन मन्त्रों का प्रसारण, संध्या, यज्ञ तथा भजनों का प्रसारण, आप आवश्यक कर्तव्य समझकर प्रेम से करते थे ।

ऐसी मनः स्थिति में उन्होंने अपनी छोटी बेटी ऋतम्भरा को छः वर्ष की अल्पायु में ही बड़ी बेटी प्रियंबदा जी के पास पाणिनि कन्या महाविद्यालय वाराणसी भेज दिया । यहाँ इन्होंने आर्य पद्धति द्वारा समस्त अध्ययन किया । 15 वर्ष के सुदीर्घ काल में आपने अष्टाध्यायी, प्रथमावृत्ति से लेकर महाभाष्य पर्यन्त व्याकरण के सभी ग्रन्थ पढ़े, और मध्यमा से लेकर व्यकरणाचार्य पर्यन्त सभी परीक्षाएँ भी दीं । आपने जहाँ पू० दोनों आचार्याओं से अध्ययन किया, वहीं उनके सहोदर भ्राता राष्ट्रपति पुरस्कृत तथा लब्धाष्टस्वर्णपदक डॉ० सुद्युम्नाचार्य जी तथा अपनी अग्रजा स्नातिका बहनों से भी परीक्षोपयोगी ग्रन्थ पढ़े । आपने गुरुकुलीय शिक्षा सन् 1994 में पूर्ण कर ली थी । तत्पश्चात् 1996 में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम्० ए० किया । इसी वर्ष 14 जुलाई को आपने अपनी अग्रजा डॉ० प्रियंवदा बेदभारती जी के साथ गुरुकुल आर्य कन्या विद्यापीठ की स्थापना में हर्षोल्लास के साथ सहयोग किया । गुरुकुल को दी जाने वाली अध्यापनादि की अवैतनिक सेवाएँ विवाहोपरांत आज तक भी यथासम्भव चल रही हैं । 2007 में मथुरा से बी० एड० करने के उपरान्त 2009 में आप सरकारी अध्यापन कार्य में नियुक्त हुई।

साहित्यिक अभिरुचि - व्याकरण जैसे रुक्ष विषय के साथ साहित्यक अभिरुचि का विकास होना असम्भव सा प्रतीत होता है, पुनरपि गुरुकुल में रहते हुए आपने इसका पर्याप्त समन्वय किया । संस्कृत एवं हिन्दी में अनेक कहानियां लिखी, संस्कृत की एक कहानी - 'द्वितीयः पुत्रः' संस्कृत अकादमी द्वारा पुरस्कृत भी हुई । इसके साथ-साथ कई संस्कृत एवं हिन्दी भाषा में नाटकों का निर्माण भी आपने किया । आपका "पर्यावरणसंरक्षणम्" नामक नाटक कनिष्ठ वर्गीय प्रतियोगिता में पूरे उत्तराखण्ड में प्रथम स्थान पर रहा । आपके "पतञ्जलेर्मानसपुत्रः, वैयाकरणानां विनोदाय" आदि लेख विद्वतज्जनो द्वारा पर्याप्त सराहे गये । इस प्रकार आचार्या ऋतम्भरा का संस्कृत व्याकरण के अध्ययन अध्यापन संवर्धन में अप्रतिम योगदान है ।