20 वीं शताब्दी की उत्तरप्रदेशीय विद्वत् परम्परा
 
डॉ. चन्द्रभानु त्रिपाठी
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जन्म 07 मई 1925
जन्म स्थान ग्राम एकडला
स्थायी पता
फतेहपुर जनपद , ग्राम एकडला

डॉ. चन्द्रभानु त्रिपाठी

श्री चन्द्रभानु त्रिपाठी जी का जन्म फतेहपुर जनपद के यमुनातटावस्थित एकडला नामक ग्राम में सामवेदाध्यायी काश्यप गोत्रीय कान्यकुब्ज ब्राह्मण महापण्डित श्री दुर्गाप्रसाद त्रिपाठी के वंश में 07.05.1925 को  हुआ । इनके पिता का नाम श्री बालकराम त्रिपाठी एवं माता का नाम श्रीमती शिवा देती था । पं० चन्द्र भानु जी का पाणिग्रहण वर्ष 1946 में श्रीमती शकुंतला त्रिपाठी के साथ हुआ था । जिनसे दो पुत्रियां श्रीमती शैलजा त्रिवेदी एवं श्रीमती सरोज द्विवेदी एवं एक पुत्र श्री उपेंद्र त्रिपाठी हैं । उन्हीं की वंश परम्परा में पं० श्री दुर्गा प्रसाद त्रिपाठी का नाम आता है, जो एक बड़े संस्कृत विद्यालय के कुलपति एवं अनेक दुर्लभ ग्रंथों के लेखक व संग्राहक थे । इन्होंने पं० श्री त्रिविक्रम भट्ट विरचित "रामकीर्तिकुमुदमाला" पर टिप्पणी तथा ज्योतिष शास्त्र पर "जातक शेखर" नामक ग्रंथ की भी रचना भी थी । श्री चन्द्रभानु जी त्रिपाठी के प्रपितामह पं० गौरीदत्त त्रिपाठी जी अनेक शास्त्रों, वेद, व्याकरण एवं साहित्य के अति उत्कृष्ट विद्वान् थे । उन्हें विद्या अपने वंश परंपरा से प्राप्त थी । ये एकडला में अध्यापन कार्य करते थे । इनके शिष्यों में सन्त हृदय ब्रज के प्रसिद्ध भक्त शिरोमणि पं० श्री गया प्रसाद मिश्र जी विशिष्ट विद्वान् और यशस्वी हुए । श्री चंद्रभान जी ने इन्हीं के सानिध्य में 4 वर्षों तक रहकर अपनी वंश परंपरा की विद्या का अर्जन किया।

श्री चंद्रभान त्रिपाठी जी ने पारंपरिक व आधुनिक दोनों विधाओं से संस्कृत का अध्ययन किया।  सन् 1948 में लखनऊ विश्वविद्यालय से आचार्य की परीक्षा एवं अगले वर्ष वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय से नव्य व्याकरणाचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की । राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति अनुराग होने से सन् 1951 में हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से साहित्य रत्न की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा 1954 में आगरा विश्वविद्यालय से एम. ए. की उपाधि प्राप्त की । काशी हिंदू विश्वविद्यालय से संस्कृत में की उपाधि प्राप्त करके संपूर्णानन्द विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया था । "व्याकरण दर्शन में स्फोटतत्त्व का स्वरूप" विषय लेकर सन् 1971 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डि.फिल. की उपाधि प्राप्त की ।

श्री त्रिपाठी जी ने सन् 1947 से लेकर सन 1972 पर्यन्त प्रयाग जनपद के जसरा नामक उपनगर में स्थित ईश्वरदीन छेदी लाल इंटर कॉलेज में अध्यापन कार्य किया । इसके बाद इलाहाबाद डिग्री कॉलेज में नियुक्ति हो गई, जहां पर 13 वर्षों तक अध्यापन कार्य किया और सन् 1985 में सेवानिवृत्त हो गए । सेवानिवृत्ति के पश्चात गंगानाथ झा केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ में शास्त्र चूड़ामणि प्रोफेसर के रूप में शोध कार्य करते हुए "काशिकावृत्तिसार" को संपादित किया । श्री त्रिपाठी जी सुयोग्य एवं कुशल अध्यापक के रूप में सुप्रसिद्ध रहे । इनके द्वारा पढ़ाए गए अनेकों शिष्य विभिन्न शिक्षण संस्थानों में उच्च पदों को अलंकृत कर रहे हैं ।

इनके परिवार का लगभग 1700 ई० से आज तक का अविछिन्न इतिहास मिलता है, जिससे स्पष्ट ज्ञात होता है, कि इनके पूर्वजों में एक से एक मूर्धन्य विद्वान्, कवि, वैयाकरण एवं भक्त शिरोमणि महानुभाव रहे हैं। जैसे प्रथम आचार्य धरणीधर जी के शिष्य पं. त्रिविक्रम त्रिपाठी थे, जिन्होंने "रामकीर्तिकुमुदमाला" नामक उत्कृष्ट काव्य ग्रन्थ की रचना की । इन्हीं त्रिविक्रमभट्ट जी के भाञ्जे पं० श्री बलभद्र त्रिपाठी व्याकरण शास्त्र के अद्भुत विद्वान् थे । उन्होंने पाणिनीय अष्टाध्यायी पर श्री जयादित्य वामन द्वारा रचित वृत्ति "काशिका" का सार ग्रहण करते हुये और उसे नूतन उदाहरणों से अलंकृत करते हुये "काशिकावृतिसार" नामक ग्रन्थ की रचना प्रायः 1725 ई० के आसपास की, जिसको बाद में पं. चन्द्रभानु त्रिपाठी ने "सुधा" नामकी टीका लिखकर गंगानाथ झा केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ प्रयाग द्वारा प्रकाशित करवायी। पं० श्री बलभद्र त्रिपाठी जी के द्वारा "सारस्वत व्याकरण" का भी एक सरल एवं सुगम संस्करण बनाया गया था जो "बलभद्रीय सारस्वत" के नाम से फतेहपुर जनपद में प्रसिद्ध है तथा जिसके आधार पर बहुत समय तक स्थानीय विद्यालयों में संस्कृत का अध्ययन अध्यापन होता रहा ।

श्री चन्द्रभान त्रिपाठी जी ने कई ग्रंथों का प्रणयन व संपादन किया है, जिनका संक्षिप्त परिचय यहां पर प्रदत्त है -

1. उर्वशी - पौराणिक आख्यान पर आधारित इस 4 अंक की नाटिका में पुरुरवा तथा उर्वशी की प्रणय कथा वर्णित है । इसमें शास्त्रीय छंदों के अतिरिक्त शास्त्रीय संगीत नियमों से विभूषित गीतिकायें भी सफलता से प्रयुक्त की गई हैं ।

2. सुजाता - इस चार अंक की नाटिका में सुजाता के पायसोपहार को ग्रहण कर सिद्धार्थ गौतम के बुद्धत्व प्राप्ति की कथा वर्णित है ।

3. गीताश्री - इस गीतिकाव्य में, वाणी वन्दना, श्री दुर्गाष्टकं, प्रियं भारतं मे सदा वन्दनीयम्, ऋतुराजविलासं, पश्य सखे ! इत्यादि विविध भावों में 26 गीतिकायें उपनिबद्ध हैं ।

4. मंगल्या - श्रृंगारादि रसों से अलंकृत इस गीत संकलन में विविध भावों में उपनिबद्ध 37 कविताएं संग्रहीत हैं ।

(ऊपरिलिखित चारों रचनाएँ उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी द्वारा पुरस्कृत हैं )

5. सामानुशासनम् - इस ग्रंथ में सामवेदीय व्रत बन्ध विधि के साथ सामवेद विषयक संक्षिप्त विवरण उपनिबद्ध है ।

6. संस्कृतनिबन्धादर्श: - इस ग्रंथ में विविध विषयों में संस्कृत निबन्ध संग्रहीत हैं । इनके अतिरिक्त भारतीय शब्द शास्त्र में "स्फोट मीमांसा" श्री दुर्गाप्रसाद त्रिपाठी विरचित "जातक शेखर" ग्रंथ में सुरभि नामक संस्कृत व्याख्या व हिंदी टीका, वेद दीपिका, चारुदत्त नाटक की टीका, मेघदूत खण्डकाव्य की टीका, काशिका वृत्तिसार का संपादन तथा सुधा नाम की टीका, रामकीर्तिकुमुदमाला की टीका, श्रीमद्भागवत महापुराण की हिन्दी व्याख्या भी त्रिपाठी जी के वैदुष्य व परिश्रम का प्रमाण है । कर्मकाण्ड से संबंधित "संस्कार पद्धति" का प्रणयन तथा अन्य कई ग्रंथों का संपादन व टीका उनके द्वारा ही की गई है । श्री त्रिपाठी जी की कर्मकांड में भी अबाध गति रही है । अनेकों स्थानों पर जाकर उन्होंने यज्ञ विवाह आदि संस्कार संपन्न करवाए किन्तु दक्षिणा कभी स्वीकार नहीं की।

श्री त्रिपाठी जी को उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान व मध्य प्रदेश से कई पुरस्कार प्राप्त हैं । काशीकावृत्तिसार के संपादन व टीका पर पाणिनि पुरस्कार एवं 15 अगस्त 1994 को तत्कालीन राष्ट्रपति श्री डॉ शंकर दयाल शर्मा जी द्वारा राष्ट्रपति भवन में आमंत्रित कर उत्कृष्ट संस्कृत विद्वान् के रूप में सम्मान पत्र प्रदान किया गया ।

मुजफ्फरपुर में एक यज्ञ समारोह में भाग लेकर वापस आते समय वाहन दुर्घटना में उनकी गर्दन पर बहुत चोट आ गई जिसके कारण 5 जून सन् 1999 को वे गोलोकवासी हो गए । इस प्रकार"यावज्जीवमधीते विप्र:" की उक्ति को चरितार्थ करते हुए श्री त्रिपाठी जी का सम्पूर्ण जीवन अध्ययन-अध्यापन, ग्रन्थ-प्रणयन व देववाणी की समाराधना में ही व्यतीत हुआ ।


पुरस्कार

उत्कृष्ट संस्कृत विद्वान्