20 वीं शताब्दी की उत्तरप्रदेशीय विद्वत् परम्परा
 
आचार्य धर्मानन्द कोठ्यारी दर्शनपोस्टाचार्य
क्या आपके पास चित्र उपलब्ध है?
कृपया upsanskritsansthanam@yahoo.com पर भेजें

जन्म स्थान कासगंज
स्थायी पता
कासगंज

आचार्य धर्मानन्द कोठ्यारी दर्शनपोस्टाचार्य

आचार्य धर्मानन्द जी ‘भारतीय प्राच्य-वाङ्मय’ के वे शलाका पुरुष थे, जिनका कीर्तिकेतु आज भी उन्मुक्त-गगन में दोधूयमान है। इनकी सम्पूर्ण शिक्षा वाराणसी में पं. हरिनारायण तिवारी जी के चरणों में अध्युषित होकर संपन्न हुई। ये तिवारी जी के प्रमुख शिष्यों में अन्यतम थे। ये वाराणसी से अधीतविद्य होने के बाद ‘कासगंज-जनपद’ की प्रसिद्ध तीर्थनगरी ‘सोरों’ में स्थित ‘आदर्श मेहता संस्कृत महाविद्यालय’ में यावज्जीवं प्राचार्य के रूप में पढ़ाते रहे। आचार्य जी की यह विशेषता थी कि वे ‘लघुसिद्धांतकौमुदी’ से लेकर शेखर पर्यन्त सभी ग्रन्थों को बिना  ग्रन्थ का सहारा लिए मौखिक ही सफलतापूर्वक पढ़ाते थे। उनकी शैली बड़ी रोचक और सरल थी। वे संस्कृतव्याकरण और काव्यशास्त्र के तलस्पृक् पारदृश्वा मनीषी थे। उन्होंने बड़े ही प्रयत्न पूर्वक ‘संस्कृत-व्याकरणदर्शन’ पर एक विशाल ग्रन्थ लिखा था जो प्रकाशित नहीं हो सका और अब तो वह पूर्णतया नष्ट हो गया है। हमें प्रयत्न करने पर भी उसका कोई अवशेष भी प्राप्त नहीं हुआ। आदरणीया आचार्यानी अभी जीवित हैं। उनकी पुत्री डॉ. सिद्धेश्वरी जी स्वसेवा से निवृत्त होकर अपने पति ‘पन्त’ जी और अपनी माता जी के साथ अभी भी सोरों-नगर में ही निवास कर रही हैं।

आचार्य जी की एक जीर्ण-शीर्ण कृति उपलब्ध है-‘वैयाकरण-कारिकासंग्रह’। यह एक ‘लघुपुस्तिका’ रूप है। इसमें आचार्य जी ने ‘अष्टाध्यायी’ की ‘काशिका’ नामक वृत्ति में आई हुई 129 कारिकाओं की तथ्यपूर्ण संक्षिप्त व्याख्या की है। उनके इस ग्रन्थ की पहली कारिका है-

                    ”प्रत्याहारेऽनुबन्धानां कथमज्ग्रहणेषु न।

                     आचारादप्रधानत्वाल्लोपश्च बलवत्तरः।।“

                     और अन्तिम कारिका है-

                     फली वनस्पतिर्ज्ञेयो वृक्षाः पुष्पफलोपगाः।

                     ओषध्यः फलपाकान्ता लता-गुल्माश्च वीरुधः।।

 

अन्त में उन्होंने निम्नांकित पुष्पिका के साथ इस ग्रन्थ को समाप्त किया है-

                     वेदाङ्गघ्रिनन्दचन्द्राब्दे शुभे मकरगे खौ।

                     शनौ वसन्तपञचम्यामगात्पूर्तिमियं कृतिः।।

                     वैयाकरणच्छात्रेणांभवेदुपकृतिर्यदि।

                     तदास्याच्छ्रमसाफल्यं प्रीयतामुमया शिवः।।