20 वीं शताब्दी की उत्तरप्रदेशीय विद्वत् परम्परा
 
आचार्य पूर्ण चन्द्र उपाध्याय
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जन्म 15 अक्टूबर 1932
जन्म स्थान बर्मा
स्थायी पता
बर्मा म्यांमार

आचार्य पूर्ण चन्द्र उपाध्याय

आचार्य पूर्ण चन्द्र उपाध्याय का जन्म 15 अक्टूबर 1932 ईस्वी को बर्मा म्यांमार में हुआ था। आपके बाबा (पितामह) कपिलदेव उपाध्याय सेना में धर्मगुरु के पद पर भर्ती हो गए थे, वहाँ से आप के पितामह लोग पहले नेपाल के ओखल डुन्डा में जाकर बस गए फिर उसके बाद बर्मा चले गए। आपका पूरा परिवार काफी दिनों तक बर्मा में रहा । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आपके पिता सपरिवार भारत के असम राज्य में तेजपुर नामक स्थान पर आकर बस गए । युद्ध के कारण भयङ्कर उथल-पुथल व बर्मा में रोग फैला था। इसी कारण आपका परिवार वहाँ से भारत के लिए चला।  यातायात व्यवस्था सुलभ न होने के कारण वहाँ से असम आने में 1 माह का समय लगा । भारी वर्षा व रोग से आपका आधा परिवार रास्ते में ही मर गया ।

आप 11 वर्ष की अवस्था में वाराणसी अपने चाचा पण्डित लक्ष्मी कान्त उपाध्याय के पास आए और वहीं आप की शिक्षा- दीक्षा पूरी हुई । आपकी सम्पूर्ण शिक्षा वाराणसी में हुई। वह उन दिनों लक्ष्मी पञ्चाङ्ग प्रकाशित करते थे । आपको नव्य व्याकरण, नव्य न्याय, शांकर वेदान्त, ज्योतिष, सांख्य-योग, पुराणेतिहास और साहित्याचार्य की उपाधि प्राप्त है ।

ज्योतिष आपकी वंशानुगत विद्या रही। आपने अपने शिक्षा काल में उन दिनों वाराणसी में हो रहे स्वतन्त्रता आन्दोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया । उस समय आप वाराणसी में रहकर ब्राह्मण महासभा बनाकर अंग्रेजों के विरुद्ध ब्राह्मणों को भड़काने का कार्य कर रहे थे। आप पहले वेद-वेदाङ्ग संस्कृत महाविद्यालय वाराणसी में शिक्षक व प्राचार्य रहे । फिर आप जनता महाविद्यालय बिसौरी में प्राचार्य रहे । बाद में आप जनता महाविद्यालय बिसौरी दान (नेपाल) में प्राचार्य हो गए । आप भगवान दास संस्कृत महाविद्यालय ऋषिकुल हरिद्वार और श्री गोरक्षनाथ संस्कृत विद्यापीठ गोरखपुर में प्राचार्य होकर सेवानिवृत्त हुए हैं । आप विभिन्न स्नातकोत्तर विद्यालय में लगभग 20 वर्षों तक प्राचार्य रहे ।

आपकी देखरेख में गोरखपुर विश्वविद्यालय, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, अवध विश्वविद्यालय तथा लाल बहादुर शास्त्री विद्यापीठ (दिल्ली) के सैकड़ों शोध छात्रों ने अपना शोध कार्य पूरा किया है । आप अनेक अन्तर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय और प्रान्तीय संस्कृत सम्मेलनों में अध्यक्ष, वक्ता एवं संचालक रहे । आपके दर्जनों धार्मिक लेख एवं सामाजिक लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। आप संस्कृत रक्षा समिति उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष और सार्वभौम ब्राह्मण महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे । आप गोरखपुर में रहकर याज्ञिक, अध्ययन व लेखन के कर्म में जुटे रहे । आपकी तीन रचनाएँ हैं –

1. देवाधिदेवस्य गरलपानम् - यह महाकाव्य 17 सर्गों का है। इस महाकाव्य में यह सिद्ध किया गया है कि सभी देवताओं में वही सर्वश्रेष्ठ देवता है जिसने संकट में साथ दिया । इस महाकाव्य में देवाधिदेव की महिमा का चमत्कार पूर्ण वर्णन किया गया है । यह महाकाव्य विश्वबन्धुत्व की भावना का अच्छा प्रदर्शन करता है ।

2. श्रीपरशुराममहाकाव्यम् - यह महाकाव्य 15 सर्गों का है। इस महाकाव्य में ब्राह्मणों का महत्त्व एवं ब्राह्मण योनि से ही मुक्ति के कारणों का व्यापक विवरण बताया गया है । ब्राह्मणों के उत्थान एवं पतन का कारण भी विशेष रूप से दर्शाया गया है ।

3. भागवतमहापुराण (अप्रकाशित) - यह पुराण शंकर भगवान की विभिन्न लीलाओं व लोकोत्तर कार्यों के दिग्दर्शन का दर्पण है । इसमें लगभग 2400 श्लोक हैं । यह ग्रन्थ शिव की महत्ता का दिग्दर्शन कराता है।

      उत्तर प्रदेश सरकार ने 1982 में विशिष्ट विद्वत् पुरस्कार से आप को सम्मानित किया है ।


पुरस्कार

विशिष्ट विद्वत् पुरस्कार