20 वीं शताब्दी की उत्तरप्रदेशीय विद्वत् परम्परा
 
शिव शंकर शुक्ल
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जन्म 18 जनवरी 1952
जन्म स्थान ग्राम मटरा
स्थायी पता
ग्राम मटरा, जनपद जालौन

शिव शंकर शुक्ल

देवभाषा संस्कृत एवं सनातन धर्म का  केंद्र प्रायः गुरुकुल ही माने जाते हैं, तथा गुरुकुलों के महत्त्वपूर्ण स्तंभ वहां के आचार्य होते हैं। आधुनिक समय में भी गुरुकुल पंरपरा के निर्वाहक आचार्य डॉ. शिवशंकर शुक्ल जी हैं।

आपका जन्म ग्राम मटरा, जनपद जालौन में 18 जनवरी, 1952 को हुआ था। आपके पिता का नाम स्वर्गीय पंडित जयाराम शुक्ल व माता स्वर्गीय राजा बेटी थीं। आपकी  प्रारंभिक शिक्षा प्राथमिक विद्यालय मटरा में ही हुईं। आपने उच्च शिक्षा हेतु कल्लूमल संस्कृत महाविद्यालय, कानपुर में दाखिला लिया तथा साहित्याचार्य (1972), व्याकरणाचार्य (1975) की उपाधि प्राप्त की। आपने हिंदी तथा संस्कृत विषय में भी एम.ए. की उपाधि प्राप्त की।

आपका विवाह सन् 1968 में श्रीमती मुन्नी देवी से हुआ। आपके दो पुत्र देवेंद्र शुक्ल, दीनबंधु शुक्ल व एक पुत्री कु. वंदना शुक्ला हैं।

साहित्य से आचार्य की उपाधि प्राप्त करने के अनंतर ही आप श्रीव्यासक्षेत्र संस्कृत महाविद्यालय, कालपी (जालौन) में आचार्य पद पर नियुक्त हो गए तथा आप महाविद्यालय के प्राचार्य पद से सन् 2012 में कार्यमुक्त हुए। सेवानिवृत्ति होने के उपरांत भी आप अद्यावधि महाविद्यालय का कार्य कर रहे हैं। आपके प्रयासों से शताधिक छात्र प्राचीन ज्ञान-विज्ञान का अध्ययन कर रहे हैं।

आप अत्यंत सात्त्विक व निस्पृह हैं। अनेक लोगों के द्वारा कहे जाने पर आपने सन् 2008 में बुंदेलखंड विश्वविद्यालय झांसी से ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता एवं ईश्वरगीता का तात्त्विक विवेचन’’ विषय  पर शोध कार्य की उपाधि प्राप्त की।

आप साहित्य एवं व्याकरण के मर्मज्ञ हैं। आपकी गुरु-पंरपरा में श्री उमाशंकर मिश्र (झलोखर), श्री प्रकाशनारायण शास्त्री (कालपी), श्री श्यामाचरण मिश्र षडाचार्य (कानपुर) विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं। आपकी शिष्य-परम्परा में विवेक मिश्र, शोभित पांडेय, मनीष पांडेय, हरिकिशन शुक्ल आदि कर्मकांड-अध्यापन आदि के द्वारा संस्कृत का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं।

आप संस्कृत, हिंदी के साथ-साथ पालि भाषा के भी विशेषज्ञ हैं। आपने लगभग 6 लेख लिखे हैं, जो विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। आप अभी ‘गजेन्द्रमोक्षम्’ नामक काव्य की रचना में संलग्न हैं, इसके अभी तक दो सर्ग ही लिखे गये हैं। संभवतः जल्दी ही यह रचना साहित्यानुरागियों के समक्ष प्रकट होगी।

आपकी संस्कृत सेवा लगभग 40 वर्ष रही है। अद्यावधि भी चल रही है। महाविद्यालय की सेवा के द्वारा संस्कृत सेवा आपके जीवन का चरम लक्ष्य है।